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शनिवार, 9 अप्रैल 2011

मौन रागम (1985) - तमिल फिल्म समीक्षा


हिन्दी फिल्में देखता रहा हूँ, परंतु बीच-बीच में अन्य भाषाओं की फिल्में देखने का अवसर भी मिला है। अंग्रेज़ी और तेलुगु के अतिरिक्त भी कई भाषाओं की फिल्में देखीं हैं। तमिळ में बनी "मौन रागम" एक ऐसी ही फिल्म है। अधिकांश तमिल फिल्मों की तरह नाटकीयता और भावनात्मकता का खूबसूरत संतुलन।

आज तो मणिरत्नम को भारतीय फिल्म जगत अच्छी तरह पहचानता है। 1985 में बनी "मौन रागम" उनकी पहली फिल्म थी। फिल्म का पार्श्व संगीत व गीत-संगीत मेरे प्रिय संगीतकार इल्याराजा का है। संगीत इस फिल्म का एक सशक्त पक्ष है। ऐस. जानकी और ऐस. पी बालासुब्रामण्यम के स्वर अभिनेताओं और संगीत के अनुकूल हैं। "चिन्न चिन्ना" और "निलावे वा" जैसे गीतों से दर्शक सहज ही जुड जाता है। सन 2007 की हिन्दी फिल्म "चीनी कम" के गीत इस फिल्म के संगीत से प्रेरित बताये जाते हैं।

विषय भले ही नया न हो परंतु इस फिल्म की कहानी, निर्देशन, नृत्य फोटोग्राफी आदि सभी अंग सुन्दर हैं। रेवती, मोहन और कार्तिक  मुथुरामन इस फिल्म के मुख्य कलाकार हैं। सहज अभिनय ने इस फिल्म में चार चान्द लगा दिये हैं।
    
कठिन परिस्थितियों में दिव्या को अपनी अच्छा के विरुद्ध चन्द्रकुमार से विवाह करना पडता है। शादी के बाद भी वह न तो अपने मृत प्रेमी को भूल पाती है और न ही वर्तमान सम्बन्ध के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाने का कोई अवसर ही छोडती है। मृदुभाषी पति उसके अतीत को भुलाकर वर्तमान को हर सम्भव सुखद बनाता है और इसी प्रयास में एक दिन यह पूछ बैठता है कि वह अपनी पत्नी को ऐसा क्या उपहार दे जिससे वह संतुष्ट हो सकेगी।

"तलाक़", दिव्या कहती है और चन्द्रकुमार अपना कलेज़ा सीकर न केवल उसकी इच्छापूर्ति की प्रक्रिया में लग जाता है बल्कि अब वह आसन्न जुदाई के लिये अपने को तैयार करते हुए स्वयम् भी इस सम्बन्ध से बाहर आने के प्रयास आरम्भ कर देता है। सहमति से तलाक़ की अर्ज़ी दाखिल होती है परंतु नियमों के अनुसार दोनों को एक वर्ष तक साथ रहकर अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा जाता है।

जैसा कि आप अन्दाज़ लगा सकते हैं कि इस बीच धीरे-धीरे दिव्या अपने पति के शांत व्यवहार के पीछे छिपे व्यक्ति को समझने लगती है परंतु अब समीकरण उल्टे चलने लगते हैं जहाँ पति अपने जीवन से दिव्या की आगत अनुपस्थिति के बाद की तैयारी में लगा है। एक दिन अपने काम पर हुई किसी झडप में जब चन्द्रकुमार घायल हो जाता है, दिव्या अपना कर्तव्य निभाती हुई पहली बार पति की सेवा में लग जाती है।

दिव्या को याद भी नहीं रहता कि साल पूरा होने को है और तलाक़ के निर्णय की तारीख निकट आती जा रही है। दोनों ही अपने दिल की बात अपने तक ही रखते हैं। लेकिन दिव्या इसी बीच अपने प्रेम की मूक अभिव्यक्ति के लिये लिये कुछ ऐसा कर बैठती है जिससे खफा होकर चन्द्रकुमार उसका रेल का टिकट मंगाकर उसे अपने मायके जाने को कहता है। दुखी मन से जब वह स्टेशन पहुंचती है तो चन्द्रकुमार को वहाँ मौजूद पाती है। प्रसन्न्मना पत्नी निकट आती है तो चन्द्रकुमार उसे वादा किया गया उपहार देता है - तलाक़ की स्वीकृति के पत्र। दिव्या अपने हृदय की बात कहकर उन कागज़ों को फाडकर अपनी ट्रेन में चली जाती है।

देखिये इस फिल्म का अंतिम दृश्य यूट्यूब के सौजन्य से। नहीं, "मौन रागम" के लिये आपको तमिळ भाषा जानने की आवश्यकता नहीं है, हाँ आती हो तो बेहतर है।


Mauna Ragam climax scene video clip courtesy: Youtube and original uploader

सोमवार, 7 मार्च 2011

यह साली ज़िन्दगी - फिल्म समीक्षा


यह साली ज़िन्दगी
 सुधीर मिश्र हिन्दी सिनेमा के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। 1996 की रोमांचक फिल्म "इस रात की सुबह नहीं" से मशहूर हुए सुधीर मिश्र 1983 की चर्चित फिल्म "जाने भी दो यारों" की कथा और पटकथा के सहलेखक थे, इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है। 

 मैं भी "जाने भी दो..." से लेकर "हज़ारों ख्वाहिशें..." तक सुधीर मिश्र का फैन रहा हूँ। लेकिन अब लगता है कि वे अपने ही फॉर्मूले दोहराने के फेर में पड गये हैं। कई पात्रों से अभिनय भी नहीं करा सके थे। फिल्म जगह-जगह पर नकली लगी।

"यह साली ज़िन्दगी" के नाम पर आपत्ति किये जाने पर सुधीर का कहना था कि "साली" कोई गाली नहीं है। फिल्म देखने वालों को पता लग गया होगा कि वाहियात गालियों के मलबे में दबी हुई फिल्म के निर्देशक को "साली" में गाली कैसे नज़र आयेगी। "इस रात की सुबह नहीं" का पुलिस अधिकारी इस फिल्म में भी अपराधियों से मिलकर हत्या सरीखे अपराध बडी तसल्ली से अंज़ाम देता है। "हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी" के नायक की तरह इस फिल्म का नायक भी अपनी मॉडर्न नायिका के लिये अपना स्थापित जीवन दांव पर लगाकर मौत से आंखमिचौनी खेलता हुआ अंततः उसे पाने में कामयाब होता है। कसे निर्देशन के बावज़ूद कहानी का समय में आगे-पीछे डोलते रहना कई बार ऐसी भावना देता है मानो कोई शरारती बच्चा एक बेसुरे भोंपू को बार-बार आपके कान के आगे पीछे कर रहा हो। मंत्री बने अभिनेता से न तो अभिनय हुआ और न ही सम्वाद बोले गये। न जाने सुधीर मिश्र की हर फिल्म में एक ऐसा पात्र क्यों होता है। फिल्म में शुरू से आखिर तक की अधिकांश सिचुएशंस (घटनायें?) भी पूर्णतः अविश्वसनीय हैं और दूर की कौडी लगती हैं।

कुल मिलाकर समय और पैसे की बर्बादी और एक अच्छे निर्देशक से मोहभंग कराने वाली फिल्म।